Tuesday 7 October 2014

अवशिष्ट

डूबते-डूबते फिर  
धीरे-धीरे उबरती हूँ 
छितरी हुई  
बिखरी सी 
सागर के थपेड़ों से टूटी 
रह जाती हूँ मात्र अवशिष्ट समान 

जानती हूँ ... मैं ही हूँ दुर्गा 
मैं ही सिंदूर खेलती स्त्री 
और मैं ही हूँ वो अभिशप्त 
जिससे छीना गया अधिकार 
सिंदूर खेलने का 
दुर्गा-सम कहलाने का 

... और फिर जान जाती हूँ 
भले ही मिट्टी गढ़ ली जाती है बार-बार 
पर सिंदूर-दान की छाया को 
टूटी-बिखरी 'दुर्गा' को  
फिर कभी नहीं दिया जाता 
लाल रंग का तनिक-सा भी अधिकार 

 

Saturday 19 July 2014

चाँद के लिये

मखमली रूई के फाहे सा 
बादलों से चुहल करता 
ग़ज़लों में बसा आशिक़ 
महबूबा ... नज़्मों-रुबाई का 
रातों का सूरज 
सितारों का शहंशाह 
आसमान के सहन में 
इठलाता था चाँद 
चांदनी बिखेरता ... 
अपनी गोलाइयों पर 
मुस्कुराता था चाँद 
आसमां से पिघल ... पानी में 
अकसर उतर आता था चाँद 

इक रोज़ ... 
मचलती नन्हीं भूख भी 
चाँद से भरमा गयी 
चाँद घुल गया भूख में 
और भूख हो गयी पानी 

औकात से ज़्यादा का लालच !!!
तब से नाराज़ आसमां 
अँधेरे से लौ लगाये बैठा है 
बूँद-बूँद उतरता पानी में 
चाँद के लिये ... 
इन्साफ की कसमें उठाये बैठा है 

(शब्द-व्यंजना जुलाई-2014)



Monday 14 April 2014

अधिकार का सवाल

लोमड़ की टोली ने जम कर शिकार किया 
माँस इकठ्ठा कर दावतें उड़ायीं 
लहू के रंगों से आतिश सजायी 
जो जी भर गया तो 
कुछ निशानियाँ रख लीं जश्न की 
और पूँछ फटकारते 
फेंक दिये माँस के लोथड़े सड़ने के लिये 

उनके साथ चले आये थे 
खून सने पंजों के निशान 
उनके दाँतों में अभी भी 
कुछ टुकड़े माँस अटका रहा था 
सड़ांध से उठती तेज़ गंध 
पूरे जंगल पर मंडराने लगी 
जंगल चीत्कार उठा 
लोमड़ों की तलाशी हुई 
और कील ठोंक दी गयीं उनकी पूँछ में 

दोष किसका है  ... 
स्याना लोमड़ बता रहा है 
कि अकसर दावत उड़ाता रहा 
शिकार खुद लोमड़ के साथ 
अब ... 
सारे लोमड़ एकजुट किये जा रहे हैं 
जंगल के खिलाफ 
जंगल-राज नहीं चलने दे सकते वो 
कोई कुछ भी कहे 
शिकार तो होना ही चाहिये 
ये अधिकार का सवाल है 

Saturday 22 March 2014

बंदिनी

देखो! रोज़ की तरह
उतर आयी है
सुबह की लाली
मेरे कपोलों पर
महक उठी हैं हवायें
फिर से ...
छू कर मन के भाव
पारिजात के फूल
सजाये बैठे हैं रंगोली
पंछी भी जुटा रहे हैं
तिनके नये सिरे से
सजाने को नीड़
सुनो! कोयल ने अभी-अभी
पुकारा हमारा नाम
अच्छा,कहो तो...
आज फिर लपेट लूँ
चंपा की वेणी अपने जूडे में
या सजा लूँ लटों में
महकता गुलाब

ओह! कुछ तो कहो
याद करो ... तुमने ही बाँधा था मुझे
प्रेम के ढ़ाई अक्षर में
माना समय के साथ दौड़ते
तुम हो गये हो
परिष्कृत और विराट



Monday 10 March 2014

संबंधों की धुरी

मेरे तुम्हारे संबंधों की
क्यूँ सदा पृथक रही धुरी

जो तुम रहे सदा से तुम
मात्र मेरे लिये ही क्यूँ
लक्ष्मण-रेखित परिधि विषम
स्वीकृत थी जब जानकी
अग्नि-परीक्षा क्यूँ रची
कैसी प्रीत की रागिनी

मेरे तुम्हारे संबंधों की
क्यूँ सदा पृथक रही धुरी

नदिया की जल-धारा से
नव-जीवन सोपान चढ़ा
पाकर जल तुम मेघ बने
जग-जीवन संचार किया
हरीतिमा तो समेट ली
मरूभूमि क्यूँ रीती खड़ी

मेरे तुम्हारे संबंधों की
क्यूँ सदा पृथक रही धुरी

स्वयं विज्ञापित जलधि तुम
हृदय विशाल सम दीखते
चन्द्र का फिर रूप धारे
स्वयं पर इतराते फिरे
सरित-समागम करके भी
क्यूँ ना तनिक मिठास भरी

मेरे तुम्हारे संबंधों की
क्यूँ सदा पृथक रही धुरी


Tuesday 21 January 2014

साँकल

कई नाग फुँफकारते हैं
अँधेरे चौराहों पर
अटकने लगती है साँसों में
ठिठकी सी सहमी हवायें
खौफनाक हो उठते हैं
दरख्तों के साये भी
अपने ही कदमों की आहट
डराती है अजनबी बन
सूनी राह की बेचैनी
बढ़ जाती है हद से ज़्यादा
तब ...
टाँक लेते हैं दरवाज़े
खुद ही कुंडियों में साँकल
कि इनमें क़रार है पुराना
रखनी है इन्हें महफूज़
ज़िंदगी की मासूमियत

संभल  रहना मगर ए ज़िंदगी !
होने लगती है लहूलुहान
कच्ची मासूमियत भी कभी
कुंडी में अटकी साँकल जब
हो जाती है दरवाज़ों से बड़ी