Monday 26 August 2013

शब्द आग-आग है.....

ज़हर है शिराओं में
शब्द आग-आग है
कलम के सिरों पे अब
धधक रही मशाल है

रूह की बेचैनियाँ
स्याह रंग बदल रहीं
चल रही कटार सी
लिए कई सवाल है

ध्वस्त हैं संवेदना
लोटती अंगार पे
अर्थ हैं ज्वालामुखी
लावे में उबाल है

स्वप्न चढ़ चले सभी
वेदना की सीढ़ियाँ
नज़्म के उभार में
लहू के भी निशान हैं

बस्तियाँ उम्मीद की
जल रहीं धुँआ-धुँआ
छंद-छंद वेदना
प्रलाप ही प्रलाप है

उभर रहीं हैं धारियाँ
पाँत-पाँत घाव सी
बूँद-बूँद स्याही में
जाने क्या प्रमाद है 

11 comments:

  1. वाह !!! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ,,,

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  2. वाह शिखा जी..
    बहुत बहुत सुन्दर....यूँ लगा निराला या बच्चन साहब को पढ़ रही हूँ....

    अनु

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  3. शब्द आग आग है सचमुच ।

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  4. waaaaah Sikha di...bahut behatreen likha hai aapne..bahut bahut khub :)

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  5. Wonderful, Bemisaal........deepness filled words !!

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  6. शिखा : बहुत नुकीली रचना. पढ़ने पर आंच लग जाए एसी. कुछ बातें अखरी. पहला अंतरा और तीसरा अंतरा -- दोनों का भावप्रदेश समान लग रहा है. क्या न बहेतर होता अगर आक्रोश का कोई और आयाम आया होता..? और अंत पंक्ति में प्रमाद शब्द के प्रयोग से मैं बौखला गया... शायद इस अंतरे को ही मैं समझ नहीं पाया---- जो की आप की क्षति नहीं -निश्चिंत रूप से मेरी मर्यादा है. शेष - अनुपम.

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  7. bahut khoob mam.

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  8. वाकई शब्द शब्द में आग है

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  9. शब्दों का बेहतरीन ताना बाना ... काव्यात्मक भाव प्रधान रचना ...

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  10. बेहतरीन रचना .....शिखा जी

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