खो गया वजूद मेरा यूँ
वक़्त की सख्त दरारों में
मेरे हिस्से की धूप अब
मुझ तक ही आ पाती नहीं
आसमां पे टँगा रहा जो
मीनारों तक पहुंचा है
बिखरे टुकड़े चाँदनी,पर
छत तक सीढ़ी जाती नहीं
तारों की झिलमिलाहट में
सपने भी मुस्कुराये थे
अँधेरा हुआ है आसमां
सपनों को सुध आती नहीं
हर मरहला जवां रौनकें
दिशाओं में है रवानगी
क्यूँ उलझी राहें इस कदर
मंज़िल किधर बताती नहीं
नर्म बादलों के कारवां
बरसते गुज़रे आँगन से
सदी पुरानी है बात ये
अब मन को बहलाती नहीं
दरो दीवार ही खो गये
बेहिस ज़िन्दगी सँवारते
जीत और कब हार अपनी
दास्तां समझ आती नहीं