सागर सी गहरी आँखों में
खाली एक धुंआ सा है
सूरज तो कब का डूब चुका
अब तो बस अमावस्या है
मेले थे जिन राहों में
नागफनी उग आयी है
अपनी ही मंज़िल है लेकिन
खुद से ही कतराई है
स्वाद सुगंध कब बीत गए
यादों में भी याद नहीं
सन्नाटे कहकहे लगाते
और कोई संवाद नहीं
झुलस गये सपनों की गाथा
हर कोने में साबित है
नाखूनों के पोरों तक में
चिंगारी का हासिल है
अपनी छाया भी नाज़ुक थी
दर्पण ने कब झूठ कहा
क्यूँ ज़ख्म खुले आईने के
क्यूँ अक्स ड़रा सहमा-सहमा
एक पल ने जो त्रास दिया
अम्ल न फिर वो क्षार हुआ
एक इनकार की कीमत है
सौदा यही हर बार हुआ
(ये रचना एसिड-अटैक की पीड़ितों को समर्पित है )
(ये रचना एसिड-अटैक की पीड़ितों को समर्पित है )